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1. Ba history 1st year Syllabus 2022-23
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BA 1st year year history Notes PDF, Syllabus, Important questions For All Universities:

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नमस्कार साथियों इस पोस्ट में हम आपको बताने जा रहे हैं BA 1st year  के question paper   syllabus के बारे में बताने जा रहे हैं, जैसा की आप सभी को पता होगा कि नवीन शिक्षा नीति पद्धति के अनुसार BA 1st  year syllabus मैं आपको 3 प्रश्न पत्र लिए जाएंगे , अगर नहीं पता तो कोई बात नहीं आपको इस आर्टिकल के माध्यम से बताया जाएगा इसलिए इस आर्टिकल को पूरा ध्यान से पढ़ें । यदि आप  BA 1st year  ka syllabus अच्छे तरीके से समझ लेते है तो आप अपने exam preparation को और बेहतर बना सकते हैं ।

और आपको बता दें कि यह जो सिलेबस आपको यहां पर बताया जा रहा है । वह सभी University मे लागू होगा क्योंकि जैसा कि आप जानते हैं कि नई शिक्षा नीति पद्धति में आप के सभी University में same syllabus है। तो आप किसी भी University से अपनी स्टडी कर रहे हैं तो आप यहां पर सिलेबस और उसकी pdf भी डाउनलोड कर पाएंगे साथ ही साथ हम यहां पर आपको BA 1st  year के question paper भी Provide किए जाएंगे

BA 1st History  year question paper 2023 के आपको यहां पर महत्वपूर्ण प्रश्न उपलब्ध कराएं ताकि आप इन प्रश्नों को पढ़कर आप अपने एग्जाम को और बेहतर बना सके । BA 1st  year syllabus ko जानना बेहद जरूरी है तभी आप इसे आसानी से पढ़ सकते हैं तो हम आपके लिए लाए हैं|

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Unit-2




प्रश्न- 1. भारत की भाषा और लिपि के विकास पर एक निबंध लिखिए


उत्तर- भारत की सारी वर्तमान लिपियाँ (अरबी-फारसी लिपि को छोड़कर) ब्राह्मी से विकसित हुई हैं। इतना ही नहीं तिब्बती, सिंहली तथा दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों की सी लिपियाँ ब्राह्मी से ही जन्मी हैं । लिपि का शाब्दिक अर्थ होता है- लिखित या चित्रित ध्वनियों को लिखने के लिए जिन चिन्हों का प्रयोग किया जाता है, वही लिपि कहलाती है। इस लेख में हमने भारत की प्राचीन लिपियों की सूची दी है जो UPSC, SSC, State Services NDA, CDS और Railways जैसी प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे छात्रों के लिए बहुत ही उपयोगी है।

ही उपयोगी है।

लिपि का शाब्दिक अर्थ होता है- लिखित या चित्रित करना । ध्वनियों को लिखने के लिए जिन चिन्हों का प्रयोग किया जाता है, वही लिपि कहलाती है। लिपि मानव के महान् आविष्कारों में से एक है। मानव के विकास में, अर्थात् मानव-सभ्यता के विकास में, वाणी के बाद लेखन का ही सबसे अधिक महत्व है। मानव के बोलने की कला, एक-दूसरे को समझने की कला तथा लिखने की कला ही मानवों को जानवरों से श्रेष्ठ बना देती है।


भारत की सारी वर्तमान लिपियाँ (अरबी-फारसी लिपि को छोड़कर) ब्राह्मी से ही विकसित हुई हैं। इतना ही नहीं तिब्बती, सिंहली तथा दक्षिणी-पूर्व एशिया के देशों की बहुत- सी लिपियाँ ब्राह्मी से ही जन्मी हैं। तात्पर्य यह है कि धर्म की तरह लिपियाँ भी देशों और जातियों की सीमाओं को लांघती चली गईं।


भारत की सारी वर्तमान लिपियाँ (अरबी-फारसी लिपि को छोड़कर) ब्राह्मी से ही विकसित हुई हैं। इतना ही नहीं तिब्बती, सिंहली तथा दक्षिणी-पूर्व एशिया के देशों की बहुत- सी लिपियाँ ब्राह्मी से ही जन्मी हैं। तात्पर्य यह है कि धर्म की तरह लिपियाँ भी देशों और जातियों की सीमाओं को लांघती चली गई।

भारत की प्राचीन लिपियाँ- भारत की प्राचीन लिपियों को निम्न प्रकार से दर्शाया है-


(1) सिंधु लिपि - सिंधु घाटी की सभ्यता से संबंधित छोटे-छोटे संकेतों के समूह को सिंधु लिपि कहते हैं। इसे सिंधु-सरस्वती लिपि और हड़प्पा लिपि भी कहते हैं। कुछ इतिहासकारों का कहना है कि यह लिपि ब्राह्मी लिपि का पूर्ववर्ती है यह लिपि बौस्ट्रोफेंडन शैली का एक उदाहरण है क्योंकि यह लिपि दायें से बायें ओर और बायें से दायें की ओर लिखी जाती थी।


(2) ब्राह्मी लिपि- ब्राह्मी लिपि एक प्राचीन लिपि है जिससे कई एशियाई लिपियों का विकास हुआ है। देवनागरी सहित अन्य दक्षिण एशियाई, दक्षिण-पूर्व एशियाई, तिब्बती तथा कुछ लोगों के अनुसार कोरियाई लिपि का विकास भी इसी से हुआ था। इस लिपि को पहली बार सन् 1937 में जेम्स प्रिंस ने पढ़ा था। प्राचीन ब्राह्मी लिपि के उत्कृष्ट उदाहरण सम्राट अशोक द्वारा ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी में बनवाये गये शिलालेखों के रूप में अनेक स्थानों पर मिलते हैं।


(3) खरोष्ठी लिपि - सिंधु लिपि के बाद यह भारत की प्राचीन लिपि में से एक है। यह दायें से बायें की तरफ लिखी जाती थी। शाहबाजगढ़ी और मनसेहरा के सम्राट अशोक के अभिलेख खरोष्ठी लिपि में है। इसका उपयोग उत्तर-पश्चिमी भारत की गांधार संस्कृति में किया जाता था और इसलिए इसको गांधारी लिपि भी बोला जाता है। इस लिपि के उदाहरण प्रस्तरशिल्पों, धातुनिर्मित पत्रों, भांडों, सिक्कों, मूर्तियों तथा भूर्जपत्र आदि पर उपलब्ध हुए हैं। खरोष्ठी के प्राचीनतम लेख तक्षशिला और चार (पुष्कलावती) के आसपास से मिले हैं, इसका मुख्य क्षेत्र उत्तरी पश्चिमी भारत एवं पूर्वी अफगानिस्तान था ।


(4) गुप्त लिपि- इस लिपि को ब्राह्मी लिपि भी बोला जाता है। यह गुप्त काल में संस्कृत लिखने के लिए प्रयोग की जाती थी । देवनागरी, गुरुमुखी, तिब्बतन और बंगाली-असमिया लिपि का उद्भव इसी लिपि से हुआ है।


(5) शारदा लिपि - यह पश्चिमी ब्राह्मी लिपि से नौंवीं शताब्दी में उत्पन्न हुई थी तथा इसका उपयोग भारतीय उपमहाद्वीप के उत्तरी-पश्चिमी भाग में सीमित था । ओझा जी का कहना है कि इस लिपि का आरम्भ काल दसवीं शताब्दी में हुआ था। उनका मत है कि नागरी लिपि की तरह शारदा लिपि भी कुटिल लिपि से निकली है। उनके मतानुसार, शारदा लिपि का सबसे पहला लेख सराहा (चंबा, हिमाचल प्रदेश) से प्राप्त प्रशस्ति है और उसका समय दसवीं शताब्दी है। यह कश्मीरी और गुरुमुखी (अब पंजाबी लिखने के लिए प्रयोग किया जाता हैं) लिपि में विकसित हुआ


6) नागरी लिपि- इसी लिपि से ही देवनागरी, नंदिनागरी आदि लिपियों का विकास हुआ है। पहले इसे प्राकृत और संस्कृत भाषा को लिखने में उपयोग किया जाता था। इसका विकास ब्राह्मी लिपि से हुआ है। अभी कुछ हाल के अनुसंधानों से पता चला है कि इस लिपि का विकास प्राचीन भारत में पहली से चौथी शताब्दी में गुजरात में हुआ था


(7) देवनागरी लिपि - यह लिपि की जड़ें प्राचीन ब्राह्मी परिवार में हैं । संस्कृत, पालि, हिन्दी, मराठी, कोंकणी, सिन्धी, कश्मीरी, डोगरी, खस, नेपाल भाषा ( अन्य नेपाली भाषायें), तामाड़ भाषा, गढ़वाली, बोडो, अंगिका, मगही, भोजपुरी, मैथिली, संथाली आदि भाषाएँ देवनागरी में लिखी जाती हैं। यह विश्व की सर्वाधिक प्रयुक्त होने वाली लिपियों में से एक है।


(8) कलिंग लिपि - 7वीं से 12वीं शताब्दी के दौरान कलिंग प्रदेश में जिस लिपि का प्रयोग किया गया था उसे कलिंग लिपि बोला जाता है। कलिंग ओडिशा का प्राचीन नाम है और इस लिपि का उपयोग उड़ीसा के प्राचीन रूप को लिखने के लिए किया जाता था। इस लिपि में भी तीन शैलियाँ देखने को मिलती हैं । शुरुवाती दौर के लेखों में मध्यदेशीय तथा दक्षिणी प्रभाव देखने को मिलता है। अक्षरों के सिरों पर ठोस चौखटें दिखाई देते हैं। आरम्भिक अक्षर समकोणीय है। लेकिन बाद में कन्नड़ - तेलुगु लिपि के प्रभाव के अन्तर्गत अक्षर गोलाकार होते नजर आते हैं। 11वीं शताब्दी के अभिलेख नागरी लिपि के हैं। पोड़ागढ़ (आंध्र प्रदेश) से नल वंश का जो अभिलेख मिला है, उसके अक्षरों के सिरे वर्गाकार है। नल वंश का यह एकमात्र उपलब्ध शिलालेख है।


(10) वट्टेलुतु लिपि- इस लिपि पर ब्राह्मी लिपि का बहुत प्रभाव है और कुछ इतिहासकारों का कहना है कि इसका विकास ब्राह्मी लिपि से ही हुआ है। तमिल और मलयालम भाषा को लिखने में इसका उपयोग किया जाता था।


(11) कदंब लिपी - इसे पूर्व प्राचीन कन्नड़ लिपि भी कहा जाता है। इसी लिपि से कन्नड़ में लेखन का आरंभ हुआ। यह कलिंग लिपि से बहुत कुछ मिलती-जुलती है। इसका उपयोग संस्कृत, कोंकणी, कन्नड़ और मराठी लिखने लिए किया जाता था।


(12) तमिल लिपि- इस लिपि को भारत और श्रीलंका में तमिल भाषा को लिखने में प्रयोग किया जाता था। यह ग्रंथ लिपि और ब्राह्मी के दक्षिणी रूप से विकसित हुआ। यह शब्दावली भाषा है ना कि वर्णमाला वाली भाषा । इसे बाएँ से दाएँ लिखा जाता है। सौराष्ट्र, बडगा, इरुला और पनिया आदि जैसी भाषाएँ तमिल में लिखी जाती हैं।


हम जानते हैं कि लिपियाँ मानव की ही देन हैं, उन्हें ईश्वर या देवता ने नहीं बनाया । प्राचीन काल में किसी पुरातन और कुछ जटिल वस्तु को रहस्यमय बनाए रखने के लिए उस पर ईश्वर या किसी देवता की मुहर लगा दी जाती थी, किन्तु आज हम जानते हैं कि लेखन- कला किसी ‘ऊपर वाले' की देन नहीं है, बल्कि वह मानव की ही बौद्धिक कृति है ।

कुछ प्राचीन लेखकों के अनुसार, सभी भारतीय लिपि ब्राह्मी लिपि से विकसित हुई हैं। लिपि के निम्नलिखित तीन मुख्य परिवार हैं-


(1) देवनागरी- उत्तरी और पश्चिमी भारत जैसे हिन्दी, गुजराती, बंगाली, मराठी, डोगरी, पंजाबी आदि भाषाओं का आधार है।


(2) द्रविड़ - तेलुगु और कन्नड़ का आधार है।


(3) ग्रंथ - तमिल और मलयालम जैसे द्रविड़ भाषाओं का उपखंड है, लेकिन यह उपर्युक्त दोनों जैसी महत्वपूर्ण नहीं है।

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प्रश्न-2. भारतीय आर्य भाषा के इतिहास पर प्रकाश डालिये।

अथवा

वैदिक, लौकिक, संस्कृत का परिचय एवं विशेषतायें लिखिये

उत्तर- भारतीय आर्य भाषा का इतिहास 1500 ई.पू. से 20 शताब्दी तक फैला है।

वह हिन्द ईरानी भाषा की उपशाखा है। इसको 3 कालों में विभक्त किया जा सकता है।

(1) प्राचीन भारतीय आर्य भाषा काल- इसका समय 1500 ई पूर्व से 500 ई.पू. तक जाना गया है। इस काल में आर्य भाषा के वैदिक तथा लौकिक संस्कृत दो रूप है ।



(क) वैदिक संस्कृत- वैदिक संस्कृत का प्राचीनतम रूप ऋग्वेद में मिलता है। प्रथम मंडल और दशम मण्डलों की भाषा उसके बाद की है। वैदिक संस्कृत का जो रूप वर्तमान समय में मिलता है, वह साहित्यिक रूप है, उसे बोलचाल की नहीं कह सकते। पाणिनी समय तक वैदिक भाषा और साधारण शिक्षितों की भाषा में बहुत अन्तर आ गया था ध्वनियों में मूल भारोपीय ध्वनियों से परिवर्तन हो गया है। व्यंजनों में दो नये वर्ग ट वर्ग और च वर्ग आ गये। थे। ष, श आदि कुछ ध्वनियाँ आ गई थी। कुछ मूर्धन्य ध्वनियाँ भी आ गईं थीं। पहले ए, ऐ, ओ, औ को संयुक्त स्वर माना जाता था परन्तु बाद में ए, ओ को मूल स्वर माना जाने लगा।


(क) वैदिक संस्कृत- वैदिक संस्कृत का प्राचीनतम रूप ऋग्वेद में मिलता है। प्रथम मंडल और दशम मण्डलों की भाषा उसके बाद की है। वैदिक संस्कृत का जो रूप वर्तमान समय में मिलता है, वह साहित्यिक रूप है, उसे बोलचाल की नहीं कह सकते। पाणिनी समय तक वैदिक भाषा और साधारण शिक्षितों की भाषा में बहुत अन्तर आ गया था ध्वनियों में मूल भारोपीय ध्वनियों से परिवर्तन हो गया है। व्यंजनों में दो नये वर्ग ट वर्ग और च वर्ग आ गये। थे। ष, श आदि कुछ ध्वनियाँ आ गई थी। कुछ मूर्धन्य ध्वनियाँ भी आ गईं थीं। पहले ए, ऐ, ओ, औ को संयुक्त स्वर माना जाता था परन्तु बाद में ए, ओ को मूल स्वर माना जाने लगा।

वैदिक एवं लौकिक संस्कृत की विशेषतायें - प्राचीन भाषा श्लिष्ट योगात्मक थीं। धातु रूप शब्दों में सुरक्षित था। लौकिक संस्कृत तक आते-आते कुछ अर्थ परिवर्तन प्रारम्भ हो गया था। वैदिक संस्कृत भाषा में संगीतात्मकता अधिक थी। स्वराघात से अर्थ में परिवर्तन आ जाता था। लौकिक संस्कृत भाषा में स्वराघात अधिक विकसित हो गये थे। संगीतात्मकता कम होने लगी थी। रूपों की संख्या वैदिक संस्कृत की अपेक्षा कम हो गई थी। प्राचीन भाषा में 3 लिंग और 3 वचन थे।


(3) मध्यकालीन भारतीय आर्य-भाषा काल- इसका समय 500 ई.पू. से 1000 ई. तक माना है। इस काल की भाषा पाणिनी द्वारा व्याकरणबद्ध थी, परन्तु लोक भाषा उन्मुक्त रूप से चलती रही। लौकिक संस्कृत का विकसित रूप प्राकृत भाषा के रूप में हुआ । यह 

मध्यकालीन आर्य भाषा काल प्राकृत भाषा काल है। इसको तीन भागों में विभाजित किया गया है ।


(अ) प्रथम प्राकृत काल- यह काल 500 ई. पू. से ईसवी सन् के प्रारम्भ तक माना है। इस काल के अन्तर्गत पालि और शिलालेखी प्राकृत है। पालि भाषा में बौद्ध धर्म के मूल ग्रन्थ, टीकायें, कथा साहित्य, काव्य, धम्म पद जातक आदि सामग्री पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हैं। इसका विकास वैदिक संस्कृत तथा तत्कालीन बोलियों से हुआ है। गौतम बुद्ध के उपदेश मागधी भाषा में थे परन्तु कुछ समय बाद उनके अनुवाद उस समय की अन्तर्प्रान्तीय भाषा में हुये वही पालि है। पालि भाषा अर्द्ध मागधी पर ही आधारित है । पालि रचना काल ई. पू. 483 से आधुनिक काल तक लगभग 250 वर्ष रहा है। पालि भाषा से लंका, चीन, जापान, वर्मा की भाषायें भी प्रभावित हैं। अशोक ने राज्य के विभिन्न भागों में शिलालेख खुदवाये जो विभिन्न क्षेत्र की भाषा में हैं। इनमें उस समय की प्राकृत भाषा के विभिन्न रूप पाये जाते हैं। इनमें उत्तरी-पश्चिमी, दक्षिण-पश्चिमी तथा पूर्वी तीन रूप स्पष्ट मिलते हैं। मध्य देशीय और दक्षिणी का भी अनुमान लगाया जाता है। इस प्रकार आगम, लौप, विपर्यय विषमीकरण, समीकरण, हृस्वीकरण तथा दीर्घीकरण आदि अनेक दिशाओं में विकास हुआ।


(ब) द्वितीय प्राकृत काल- इसका समय ई. सन् के प्रारम्भ से करीब 500 ई. तक माना जाता है। यह प्राकृतों का युग था । प्राकृत भाषा की उत्पत्ति वेदों एवं संस्कृतकालीन जनभाषा के विकसित रूप से हुई है। इनका प्राचीन रूप शिलालेखों में मिलता है। इस काल में शौरसेनी, मागधी, अर्द्ध-मागधी एवं पश्चिमोत्तरी चार प्राकृत भाषायें थीं। वैसे तो 20 नाम मिलते हैं। शौरसेनी प्राकृत- यह मध्य देश की भाषा है, जो मथुरा या शूरसेन के आस-पास बोली जाती थी। इसमें संस्कृत का क्ष का विकास क्ख में हुआ और दो स्वरों के मध्य आने वाला त, द हो गया। जैसे गच्छति का गच्चदि । यह संस्कृत की ओर झुकी हुई थी ।

मागधी प्राकृत- यह अवध जनपद की भाषा थी। इस भाषा को शौरसेनी से वररुचि ने निकाला था। लंका में पालिभाषा को ही मागधी कहते हैं। इसमें साहित्य वही मिलता। इसका अस्तित्व नाटकों तथा व्याकरणों में ही है। मागधी में स-ष का श तथा र का ल रूप मिलता है। कहीं-कहीं ज का य हो जाता है।


पैशाची प्राकृत- इसके अनेक भेदों का उल्लेख मिलता है। साहित्य भी मिलता है । गुणाढ्य की वृहत्कथा पैशाची प्राकृत में है। इसमें संघोष स्पर्श वर्ण अघोष हो जाते हैं। जैसे मेघों का मेखों आदि लका र कहीं र का ल हो जाता है।


महाराष्ट्री प्राकृत- इसका क्षेत्र महाराष्ट्र है। यह काव्य तथा विशेष रूप से गीति काव्य की भाषा है। इसमें गाथा सप्तशती महत्वपूर्ण काव्य हैं। कालिदास, हर्ष आदि के नाटकों के गीतों की भाषा यही है। इसमें स-श. का ह हो जाता है। दो स्वरों के मध्य के अल्प प्राण प्रायः लुप्त हो जाते हैं।


(स) तृतीय प्राकृत काल (अपभ्रंश काल ) - इसका सम्बन्ध 500 ई. से 1000 ई. तक माना जाता है। मध्य युग के उत्तर काल की भोषा को अपभ्रंश कहा गया है। इसका विकास प्राकृत की बोलचाल की भाषा से हुआ है। यह प्राकृत तथा आधुनिक भाषाओं के मध्य की कड़ी है। मार्कण्डेय जी ने अपने ग्रंथ सर्वस्व में नागर, उपनागर और ब्राचड़ तीन भेद माने हैं।



नागर गुजरात की, ब्राचड़, सिंध की तथा उपनागर दोनों के मध्यक्षेत्र की थी। प्राकृत की बोलियां अपभ्रंश भाषाओं में विकसित हुई। अपभ्रंश भाषाओं से आधुनिक आर्य भाषाओं का विकास हुआ।

शीरसेनी अपभ्रंश से-पश्चिमी हिन्दी, गुजराती, राजस्थानी

पैशाची अपभ्रंश से- लहंदा, पंजाबी

ब्राचड़ अपभ्रंश से-सिन्धी

मागधी अपभ्रंश से- बिहारी, उड़िया, बंगाली, आसामी ।

अर्द्ध-मागधी अपभ्रंश से-पूर्वी हिन्दी

खस अपभ्रंश से-पहाड़ी

महाराष्ट्र अपभ्रंश से-मराठी



आधुनिक आर्य भाषाओं की विशेषतायें- आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं में अनुकरणात्मक शब्दों का प्रयोग बढ़ गया। उनमें तुर्की, अरबी, फारसी, अंग्रेजी तथा पुर्तगाली भाषाओं के बहुत से शब्द आ गये हैं। तीन लिंग के स्थान पर हिन्दी, पंजाबी, सिन्धी और राजस्थानी भाषाओं में स्त्रीलिंग और पुल्लिंग दो लिंग रह गये। अपभ्रंश भाषा में अयोगात्मकता प्रारम्भ हुई थी। संस्कृत, पालि प्राकृत भाषायें योगात्मक थीं। आधुनिक भाषायें पूर्ण वियोगात्मक सरल हो गईं। रूप अपभ्रंश की अपेक्षा बहुत कम हो गये। नये स्वर विकसित हुये तथा क्रिया के रूप भी पर्याप्त कम हो गये हैं।




प्रश्न- 3 भारतीय संस्कृति की विशेषताओं का उल्लेख कीजिये

प्रश्न- 4. भारतीय संस्कृति की सबसे बड़ी विशेषता है- 'अनेकता में एकता'। इस कथन की पुष्टि कीजिये।

अथवा 

‘भारत में वंश, वर्ण, भाषा, वेशभूषा व रीति-रिवाज सम्वन्धी अगणित विभिन्नताओं में भी एक अखण्ड सारभूत एकता है।' बी.ए. स्मिथ के इस कथन की विवेचना कीजिये । 

अथवा

सिद्ध कीजिये कि 'भारत में विभिन्नता में एकता तथा एकता में विभिन्नता है।'

प्रश्न- 5. भारतीय संस्कृति की सबसे बड़ी विशेषता है- 'अनेकता में एकता'। इस कथन की पुष्टि कीजिये।

अथवा 

‘भारत में वंश, वर्ण, भाषा, वेशभूषा व रीति-रिवाज सम्वन्धी अगणित विभिन्नताओं में भी एक अखण्ड सारभूत एकता है।' बी.ए. स्मिथ के इस कथन की विवेचना कीजिये । 

अथवा

सिद्ध कीजिये कि 'भारत में विभिन्नता में एकता तथा एकता में विभिन्नता है।'

प्रश्न-6 भारत में शिक्षा प्रणाली पर निबन्ध लिखिये 

अथवा

प्राचीन शिक्षा के प्रमुख उद्देश्य, शिक्षण व्यवस्था एवं प्राचीन विश्वविद्यालयों का परिचय दीजिये

प्रश्न- 7. हिन्दी भाषा की उत्तरोत्तर समृद्धि के लिये क्या प्रयास किये जाने चाहिये ?

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