भारतेंदु युग की विशेषताएं प्रमुख निबंधकार एवं उनकी रचनाएं|bhartendu Yug ki visheshtaen|
भारतेंदु युग की विशेषताएं || भारतेंदु युग परिचय || हिंदी साहित्य का आधुनिक काल |
आज की पोस्ट में हम हिंदी साहित्य के अंतर्गत आधुनिक काल में भारतेंदु युग के परिचय को पढे़गे और इस युग की प्रमुख विशेषताएं जानेंगे। आपको इस पोस्ट को पूरा पढ़ना है और अन्त तक पढ़ना है।
ऐसे युग की अधिकांश कविता वस्तुनिष्ठ एवं वर्णनात्मक है ।भाषा एवं अभिव्यंजना पद्धति में प्राचीनता अधिक है ।नवीनतम खड़ी बोली का आंदोलन प्रारंभ हो चुका था किंतु कविता के क्षेत्र में ब्रज की सर्वमान्य भाषा रही।
भारतेंदु कालिया नवजागरण काल --
(1869 से 1900)
हिंदी साहित्य के आधुनिक काल के संक्रांति काल के दो पक्ष हैं ।इस समय के दरमियान एक और प्राचीन परिपाटी में कब रचना होती रही और दूसरी ओर सामाजिक राजनीतिक क्षेत्रों में जो सक्रियता बढ़ गई थी और परिस्थितियों के बदलाव के कारण जिन नए विचारों का प्रसार हो रहा था उनका भी धीरे-धीरे साहित्य पर प्रभाव पड़ने लगा था।
प्रारंभ के 25 वर्षों (1843 से 1869 ) तक साहित्य पर यह प्रभाव बहुत कम पड़ा किंतु सन के बाद नवजागरण के लक्षण अधिक स्पष्ट रूप से दिखाई देने लगे थे।
भारतेंदु युग की आधुनिक कालीन साहित्य रूपी विशाल भवन की आधारशिला है विद्वानों में भारत भारतेंदु युग की समय सीमा सन 1857 से 1900 ताकि स्वीकार की है, भाव, भाषा और शैली आदि सभी देशों से इस युग में हिंदी साहित्य की उन्नति हुई। हिंदी साहित्य के आधुनिक कालीन भारतेंदु युग प्रवर्तक के रूप में भारतेंदु हरिश्चंद्र का नाम लिया जाता है। यह राष्ट्रीय जागरण के अग्रदूत थे । एनी के युग में रीतिकालीन परिपाटी की कविता का अवसान राष्ट्रीय एवं समाज सुधार भावना की कविता का उदय हुआ। इन्होंने कवियों का एक ऐसा मंडल तैयार किया, जिन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से नवयुग की चेतना को अभिव्यक्ति प्रदान की।
भारतेंदु युगीन साहित्य की विशेषताएं निम्नलिखित हैं -
राष्ट्रप्रेम का भाव
जनवादी विचारधारा
हास्य व्यंग की प्रधानता
प्राकृतिक वर्णन
छंद विधान की नवीनता
भारतीय संस्कृति का गौरव गान
गद्य एवं उनकी अन्य विधाओं का विकास
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विचारों में इन परिवर्तन का श्रेय भारतेंदु हरिश्चंद्र को है इसलिए इस युग को भारतेंदु युग भी कहते हैं। भारतेंदु के पहले ब्रजभाषा में भक्ति और शृंगार परक रचनाएं होती थी और लक्षण ग्रंथ भी लिखे जाते थे। भारतेंदु के समय से कब के विषय चयन में व्यापकता और विविधता आई।
श्रृंगारिकता, रीतिबद्धता में कमी आई। राष्ट्रप्रेम, भाषा प्रेम और स्वदेशी वस्तुओं के प्रति प्रेम कवियों के मन में भी पैदा होने लगा उनका ध्यान सामाजिक समस्याओं और उनके समाधान की ओर भी गया इस प्रकार उन्होंने सामाजिक ,राजनीतिक क्षेत्रों में गतिशील नवजागरण को अपनी रचनाओं के द्वारा प्रोत्साहित किया।
भारतेंदु हरिश्चंद्र (1850-1885), बाबा सुमेर सिंह, ठाकुर जगमोहन सिंह (1857-1899), अंबिकादत्त व्यास (1858-1900), राधा कृष्ण दास (1865-1907), प्रताप नारायण मिश्र 1856-1894, प्रेमघन ( 1855-1923) इस युग के प्रमुख कवि हैं अन्य कवियों में रामकृष्ण वर्मा,श्रीनिवास दास, लाला सीताराम, राय देवी प्रसाद ,बालमुकुंद गुप्त ,नवनीत चौबे आदि हैं।
1.भारतीय संस्कृति का गौरव गान -
भारतीय सभ्यता और संस्कृति की अपेक्षा पश्चिमी सभ्यता और संस्कृति को उच्च बताने वालों के विरुद्ध व्यंग्य और हास्य पूर्ण रचनाएं लिखी गई भारत के गौरव में अतीत को भी कविता का विषय बनाया गया।
2.छंद विधान की नवीनता -
भारतेंदु ने जातीय संगीत का गांवों में प्रचार के लिए ग्राम छंद-कजरी ,ठुमरी ,लावणी ,कहरवा तथा चैती आदि को अपनाने पर जोर दिया। कवितसवैया, दोहा जैसे परंपरागत छंदों के साथ-साथ इनका भी जमकर प्रयोग किया गया।
3.गद्य एवं उनकी अन्य विधाओं का विकास -
भारतेंदु युग की सबसे महत्वपूर्ण देन है गद्य एवं उनके अन्य विधाओं का विकास। इस युग में गद्य के साथ गद्य विधा प्रयोग में आई जिससे मानव के बौद्धिक चिंतन का भी विकास हुआ। कहानी, नाटक, आलोचना आदि विधाओं के विकास की पृष्ठभूमि का भी यही योग रहा है।
4.प्राकृति वर्णन -
इस युग के अधिकांश कवियों ने अपने काव्य में प्रकृति को विषय के रूप में ग्रहण किया है। उनके प्राकृतिक वर्णन में शृंगारिक भावनाओं की प्रधानता है। भारतेंदु की बसंत होली। अंबिकादत्त व्यास की पावन पचासा प्रेम धन की मयंक महिला आदि इसी कोटि की रचनाएं हैं।
5.हास्य व्यंग्य की प्रधानता -
इस योग में प्राया सभी रचनाकारों की रचनाओं में हास्य व्यंग का पुट मिलता है। अंधविश्वास , रूढ़ियों, छुआछूत, अंग्रेजी शासन तथा पाश्चात्य सभ्यता के अंधानुकरण आदि पर व्यंग्य करने के लिए इन रचनाकारों ने विषय एवं शैली के नए नए प्रयोग किए जो इनकी रचनाओं में लक्षित हैं।
6.जनवादी विचारधारा -
भारतेंदु युग का साहित्य पुराने धातु से संतुष्ट नहीं है। वेपन में बदलाव कर यह सुधार कर उसमें नयापन लाने का प्रयास किए हैं। इस काल का साहित्य केवल राजनीतिक स्वाधीनता का साहित्य ना होकर मनुष्य की एकता, समानता और भाईचारे का भी साहित्य है।
निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल
7.राष्ट्रप्रेम का भाव -
प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के परिणाम स्वरूप भारत वासियों में सोई हुई आत्मशक्ति के जागरण के साथ ही राजनीतिक अधिकारों के प्रति लालसा बढ़ी, जिससे उनमें राष्ट्रीयता के भाव का उदय होना स्वाभाविक था । इसका प्रभाव इस योग्य के रचनाओं पर भी पड़ा। ऐसे युग के रचनाकारों की रचनाओं में देशभक्ति का स्वर विशेष रूप से गुंजायमान है।
करहु आज सों राज आप केवल भारत हित,
केवल भारत के हित साधन में दीजे चित (प्रेमघन)
प्राचीन छंद योजना -
भारतेंदु युग में कवियों ने चंद के क्षेत्र में कोई नवीन एवं स्वतंत्र प्रयास नहीं किया। उन्होंने परंपरा से चले आते हुए छंदों का उपयोग किया है। भक्ति और रीतिकाल के कवित्त,सवैया,रोला,दोहा आदि छंदों का इन्होंने प्रयोग किया। जबकि जातीय संगीत का लोगों में प्रचार करने के लिए भारतेंदु ने कजली, ठुमरी, खेमटा, कहरवा, गज़ल, श्रद्धा, चैती, होली, सांक्षी, लावनी, विरहा, चनैनी आदि छंदों को अपनाने पर जोर दिया।
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि इस युग में परंपरा और आधुनिकता का संगम है। कविता की दृष्टि से यह संक्रमण का युग था। कवियों के विचारों में परिवर्तन हो रहा था। परंपरागत संस्कारों का पूर्ण रूप से मोहभंग हुआ भी ना था और साथ में नवीन संस्कारों को भी वे अपना रहे थे। काशी नवजागरण का प्रमुख केंद्र था और यहां का साहित्यिक परिवेश भी सर्वाधिक जागरूक था। तत्कालीन परिवर्तनशील सामाजिक मूल्यों का भी उन पर प्रभाव पड़ रहा था। इस युग की अधिकांश कविता वस्तुनिष्ठ एवं वर्णनात्मक हैं भाषा एवं छंद और अभिव्यंजना पद्धति में प्राचीनता अधिक है, नवीनता कम। खड़ी बोली का आंदोलन प्रारंभ हो चुका था किंतु कविता के क्षेत्र में ब्रजभाषा ही सर्वमान्य भाषा रही ।
निष्कर्ष -
भारतेंदु युग की रचनाओं की सबसे बड़ी विशेषता है प्राचीन और नवीन का समन्वय। भारतेंदु युगीन साहित्यकार कविता ब्रजभाषा और गद्य में खड़ी बोली के पक्षपाती थे। ब्रज भाषा में वे एक साथ सब भक्ति और श्रृंगार की कविता लिखकर प्राचीन कवियों की कोटि में पहुंचते हैं और नवीन ढंग की देशभक्ति तथा समाज सुधार की कविताएं लिखकर कवियों का नेतृत्व करते हैं।